आज कल वकील लोग कुछ जादे ही हिंसक हो गए है आए दिन कँही न कँही पुलिस और वकीलों के बीच झड़प होने लगी है कभी देल्ही, इलाहबाद , कानपुर, लखनऊ , गोरखपुर, वाराणसी और अब तमिलनाडु में आखिर हर बार पुलिस और वकीलों के बीच हिंसात्मक झड़पें क्यो होती है , मै इसमे किसी का भी दोष नही दूंगा लेकिन एक बात गौर करने वाली है की जो भी झगडे हुए है उनका किसी से कोई व्यक्तिगत सरोकार नही रहा अभी आप तमिलनाडू को देख ले यहाँ पर जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी पर हमले के आरोप में एक वकील की कथित गिरफ़्तारी के विरोध में वकीलों ने हंगामा शुरु किया था. और पुलिस ने उनको रोकने के लिए बल का प्रयोग किया उसके बाद झगडा बढ़ गया और देखते ही देखते खून खराबे की नौबत आ गई कई वकीलों के सर फट गए तो कई पुलिस कर्मी भी घायल होगये और देखते ही देखते कर्फ्यू लगना पड़ा , क्या इस बात पर इतना बलवा मचना चाहिए की किसी वकील पर अगर आरोप लगते है तो पुलिस को उसे गिफ्तार नही करना चाहिए अगर पुलिस ने उसे गिफ्त्तर भी किया तो क्या ग़लत है। पुलिस का काम क्या है ? आरोपी को पकड़ना और न्यालय में प्रस्तुत करना ताकि सच और झूठ का फ़ैसला हो सके तो इस में क्या बुरा किया क्या वकीलों को इस देश के संविधान का सम्मान नही करना चाहिए वे कानून से ऊपर है , आज क्या सोचती होगी डा। बाबा साहेब , महात्मा गाँधी , और उन तमाम लोगो की आत्माएं जो पहले एक वकील थे । क्या इनता बड़ा अपराध हो गया की थाना जला दिया गाडियां फूंक दी क्या वकीलों को यह करना शोभा देता है जो कानून को बनते है या उन को सुचार रूप से चलने में मदद करते है वही इस तरह की हिंसात्मक गतिविधियों का संचालन करने लगे तो आम आदमी क्या करेगा ,अगर ये विरोध प्रदर्शन का तरीका है, तो जो उपद्रवी करते है वो क्या है , ओ भी तो विरोध प्रदर्शन कहा जाना चाहिए न की हिंसात्मक गतिविधि , क्या वकीलों के घर में पुलिस वाले पैदा नही होते या पुलिस वाले के घर में वकील , ये दोनों कानून व्यवस्था के आधारभूत स्तम्भ है , अगर ये ही आपस में लड़ने लगे तो कानून व्यवस्था को कौन बनाये रखेगा क्या इस तरह की घटनाये इंसानियत , समाज , देश और कानून की अस्मिता पर प्रश्न चिह्न नही लगाती क्या एक शिक्षित व्यक्तियों के समूह को इस तरह की घटनाओ को जन्म देना शोभा देता है । ये लोग इस तरह के कार्य कर के क्या साबित करना चाहते की इनमे एकता है, क्या अपनी एकता को प्रदर्शित करने का यही एक रास्ता बचा है ।
अगर कोई मेरे इस लेख को भूले भटके पढता है तो एक बार मेरे इस बकवास पर गौर जरुर कीजियेगा और अगर आप के दिल में कोई इस तरह की घटना को रोकने का सुझाव हो तो मुझे या फ़िर अपने ब्लॉग पर जरुर पोस्ट कीजियेगा। आपना काम तो समझाना और समझना है, बाकि करने वाले जाने? देख तेरे संसार की हालत क्या होगई भगवान.................................................................
Ramayan
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Friday, February 20, 2009
ख़बर की ख़बर (तमिलनाडु: देखते ही गोली मारने के आदेश )
Posted by Anonymous at 10:40 PM
Labels: वकील और पुलिस
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रहीम दास के दोहें
जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय॥
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तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥
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बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन बिगरे दूध को, मथे न माखन होय॥
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दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे होय॥
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छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात।
कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात॥
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खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान॥
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एकहि साधै सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहि सींचबो, फूलहि फलहि अघाय॥
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चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु नहि चाहिये, वे साहन के साह॥
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आब गई आदर गया, नैनन गया सनेहि।
ये तीनों तब ही गये, जबहि कहा कछु देहि॥
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जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो होय॥
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खीरा सिर ते काटिये, मलियत नमक लगाय।
रहिमन करुये मुखन को, चहियत इहै सजाय॥
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रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तलवारि॥
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जे गरीब पर हित करैं, हे रहीम बड़ लोग।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग॥
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दोनों रहिमन एक से, जब लौं बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, ऋतु वसंत कै माहि॥
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बड़े काम ओछो करै, तो न बड़ाई होय।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरिधर कहे न कोय॥
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रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय।
सुनि इठलैहैं लोग सब, बाटि न लैहै कोय॥
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माली आवत देख के, कलियन करे पुकारि।
फूले फूले चुनि लिये, कालि हमारी बारि॥
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मन मोती अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय।
फट जाये तो ना मिले, कोटिन करो उपाय॥
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रहिमह ओछे नरन सो, बैर भली ना प्रीत।
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँति विपरीत॥
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रहिमन वे नर मर गये, जे कछु माँगन जाहि।
उनते पहिले वे मुये, जिन मुख निकसत नाहि॥
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बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥
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रहिमन विपदा ही भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय॥
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वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बाँटनवारे को लगै, ज्यौं मेंहदी को रंग॥
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रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून॥
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बानी ऐसी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय॥
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रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय॥
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रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर॥
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय॥
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तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥
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बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन बिगरे दूध को, मथे न माखन होय॥
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दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे होय॥
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छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात।
कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात॥
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खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान॥
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एकहि साधै सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहि सींचबो, फूलहि फलहि अघाय॥
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चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु नहि चाहिये, वे साहन के साह॥
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आब गई आदर गया, नैनन गया सनेहि।
ये तीनों तब ही गये, जबहि कहा कछु देहि॥
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जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो होय॥
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खीरा सिर ते काटिये, मलियत नमक लगाय।
रहिमन करुये मुखन को, चहियत इहै सजाय॥
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रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तलवारि॥
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जे गरीब पर हित करैं, हे रहीम बड़ लोग।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग॥
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दोनों रहिमन एक से, जब लौं बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, ऋतु वसंत कै माहि॥
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बड़े काम ओछो करै, तो न बड़ाई होय।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरिधर कहे न कोय॥
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रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय।
सुनि इठलैहैं लोग सब, बाटि न लैहै कोय॥
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माली आवत देख के, कलियन करे पुकारि।
फूले फूले चुनि लिये, कालि हमारी बारि॥
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मन मोती अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय।
फट जाये तो ना मिले, कोटिन करो उपाय॥
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रहिमह ओछे नरन सो, बैर भली ना प्रीत।
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँति विपरीत॥
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रहिमन वे नर मर गये, जे कछु माँगन जाहि।
उनते पहिले वे मुये, जिन मुख निकसत नाहि॥
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बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥
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रहिमन विपदा ही भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय॥
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वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बाँटनवारे को लगै, ज्यौं मेंहदी को रंग॥
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रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून॥
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बानी ऐसी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय॥
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रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय॥
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रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर॥
कबीर के अनमोल बोल
सो ब्राह्मण जो कहे ब्रहमगियान,
काजी से जाने रहमान
कहा कबीर कछु आन न कीजै,
राम नाम जपि लाहा लीजै।
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चलती चक्की देख के कबीर दिया रोय।
दो पाटन के बीच में साबूत बचा न कोय।।
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पोथी पढ़ी- पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोई।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।
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प्रेम न खेती उपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाय।
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जल में कुंभ कुंभ में जल है बाहरि भीतरि पानी।
फुटा कुंभ जल जलाहि समाना यहुतत कघैं गियानी।
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गुर गोविंद तौ एक है, दूजा यहू आकार।
आपा भेट जीवत मरै, तौ पावै करतार।।
काजी से जाने रहमान
कहा कबीर कछु आन न कीजै,
राम नाम जपि लाहा लीजै।
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चलती चक्की देख के कबीर दिया रोय।
दो पाटन के बीच में साबूत बचा न कोय।।
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पोथी पढ़ी- पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोई।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।
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प्रेम न खेती उपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाय।
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जल में कुंभ कुंभ में जल है बाहरि भीतरि पानी।
फुटा कुंभ जल जलाहि समाना यहुतत कघैं गियानी।
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गुर गोविंद तौ एक है, दूजा यहू आकार।
आपा भेट जीवत मरै, तौ पावै करतार।।
1 comments:
नवनीत जी आपका लेख बहुत प्रासंगिक और सामयिक है . मेरे विचार से चाहे वकील हों, विद्यार्थी हों, डॉक्टर हों या किसी भी बौद्धिक समुदाय से सम्बद्ध हों, वे जब एक "भीड़" की मानसिकता से ग्रसित हो जाते हैं तो उनका सारा विवेक और ज्ञान व्यक्तिक न होकर "भीड़" में कहीं खो जाता है. ऐसे में उचित नेतृत्व के अभाव में वैसी ही धटनाएं होती हैं जिनका जिक्र आपने किया है. करीब एक साल पहले गाजियाबाद में एक वीभत्स घटना हुई थी जिसमे सेना में भरती के लिए आये अभ्यर्थियों के पूरे समूह ने खुलेआम सड़कों पर उत्पात मचा दिया, औरतों, युवतियों यहाँ तक बच्चियों और बूढी महिलाओं के साथ हद तक अभद्रता की, नीरीह राहगीरों को पीटा और दुकानों को लूट डाला. दरअसल हमारे भीतर का दबा शैतान "भीड़" की आड़ में कभी कभी बाहर आ जाता है. इसकी जड़ें हमारी सामाजिक और नैतिक व्यवस्था में भी निहित हैं.
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