Friday, February 20, 2009

ख़बर की ख़बर (तमिलनाडु: देखते ही गोली मारने के आदेश )

आज कल वकील लोग कुछ जादे ही हिंसक हो गए है आए दिन कँही न कँही पुलिस और वकीलों के बीच झड़प होने लगी है कभी देल्ही, इलाहबाद , कानपुर, लखनऊ , गोरखपुर, वाराणसी और अब तमिलनाडु में आखिर हर बार पुलिस और वकीलों के बीच हिंसात्मक झड़पें क्यो होती है , मै इसमे किसी का भी दोष नही दूंगा लेकिन एक बात गौर करने वाली है की जो भी झगडे हुए है उनका किसी से कोई व्यक्तिगत सरोकार नही रहा अभी आप तमिलनाडू को देख ले यहाँ पर जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी पर हमले के आरोप में एक वकील की कथित गिरफ़्तारी के विरोध में वकीलों ने हंगामा शुरु किया था. और पुलिस ने उनको रोकने के लिए बल का प्रयोग किया उसके बाद झगडा बढ़ गया और देखते ही देखते खून खराबे की नौबत आ गई कई वकीलों के सर फट गए तो कई पुलिस कर्मी भी घायल होगये और देखते ही देखते कर्फ्यू लगना पड़ा , क्या इस बात पर इतना बलवा मचना चाहिए की किसी वकील पर अगर आरोप लगते है तो पुलिस को उसे गिफ्तार नही करना चाहिए अगर पुलिस ने उसे गिफ्त्तर भी किया तो क्या ग़लत है। पुलिस का काम क्या है ? आरोपी को पकड़ना और न्यालय में प्रस्तुत करना ताकि सच और झूठ का फ़ैसला हो सके तो इस में क्या बुरा किया क्या वकीलों को इस देश के संविधान का सम्मान नही करना चाहिए वे कानून से ऊपर है , आज क्या सोचती होगी डा। बाबा साहेब , महात्मा गाँधी , और उन तमाम लोगो की आत्माएं जो पहले एक वकील थे । क्या इनता बड़ा अपराध हो गया की थाना जला दिया गाडियां फूंक दी क्या वकीलों को यह करना शोभा देता है जो कानून को बनते है या उन को सुचार रूप से चलने में मदद करते है वही इस तरह की हिंसात्मक गतिविधियों का संचालन करने लगे तो आम आदमी क्या करेगा ,अगर ये विरोध प्रदर्शन का तरीका है, तो जो उपद्रवी करते है वो क्या है , ओ भी तो विरोध प्रदर्शन कहा जाना चाहिए न की हिंसात्मक गतिविधि , क्या वकीलों के घर में पुलिस वाले पैदा नही होते या पुलिस वाले के घर में वकील , ये दोनों कानून व्यवस्था के आधारभूत स्तम्भ है , अगर ये ही आपस में लड़ने लगे तो कानून व्यवस्था को कौन बनाये रखेगा क्या इस तरह की घटनाये इंसानियत , समाज , देश और कानून की अस्मिता पर प्रश्न चिह्न नही लगाती क्या एक शिक्षित व्यक्तियों के समूह को इस तरह की घटनाओ को जन्म देना शोभा देता है । ये लोग इस तरह के कार्य कर के क्या साबित करना चाहते की इनमे एकता है, क्या अपनी एकता को प्रदर्शित करने का यही एक रास्ता बचा है ।
अगर कोई मेरे इस लेख को भूले भटके पढता है तो एक बार मेरे इस बकवास पर गौर जरुर कीजियेगा और अगर आप के दिल में कोई इस तरह की घटना को रोकने का सुझाव हो तो मुझे या फ़िर अपने ब्लॉग पर जरुर पोस्ट कीजियेगा। आपना काम तो समझाना और समझना है, बाकि करने वाले जाने? देख तेरे संसार की हालत क्या होगई भगवान.................................................................

1 comments:

विनोद श्रीवास्तव said...

नवनीत जी आपका लेख बहुत प्रासंगिक और सामयिक है . मेरे विचार से चाहे वकील हों, विद्यार्थी हों, डॉक्टर हों या किसी भी बौद्धिक समुदाय से सम्बद्ध हों, वे जब एक "भीड़" की मानसिकता से ग्रसित हो जाते हैं तो उनका सारा विवेक और ज्ञान व्यक्तिक न होकर "भीड़" में कहीं खो जाता है. ऐसे में उचित नेतृत्व के अभाव में वैसी ही धटनाएं होती हैं जिनका जिक्र आपने किया है. करीब एक साल पहले गाजियाबाद में एक वीभत्स घटना हुई थी जिसमे सेना में भरती के लिए आये अभ्यर्थियों के पूरे समूह ने खुलेआम सड़कों पर उत्पात मचा दिया, औरतों, युवतियों यहाँ तक बच्चियों और बूढी महिलाओं के साथ हद तक अभद्रता की, नीरीह राहगीरों को पीटा और दुकानों को लूट डाला. दरअसल हमारे भीतर का दबा शैतान "भीड़" की आड़ में कभी कभी बाहर आ जाता है. इसकी जड़ें हमारी सामाजिक और नैतिक व्यवस्था में भी निहित हैं.

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